Bhagavad Gita 4.13 || अध्याय ०४ , श्लोक १३ – भगवद गीता

Bhagavad Gita 4.13

Bhagavad Gita 4.13 || अध्याय ०४  , श्लोक १ ३  – श्रीमद्भगवत गीता

Bhagavad Gita 4.13

अध्याय ०4, श्लोक 13

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: |
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् || 13||

शब्दार्थ – प्रकृति के तीनों गुणों (सत्व ,रज ,तम )और उनसे सम्बद्ध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग (ब्राहमण ,वैश्य ,क्षत्रिय ,शूद्र )रचे गए | यद्यपि मै इस व्यवस्था का स्तराष्टया  हूँ , किन्तु तुम यह जान लो कि मै इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ|

तात्पर्य  – भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, प्रकृति के तीन गुणों और कर्म के आधार पर मैंने  4 वर्णों की रचना की है अर्थात तुम्हारा कौनसा वर्ण है यह इस पर निर्भर करता है कि तुम किस प्रकार के कर्म करते हो एवं प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रजस और तमस में से किस गुण का प्रभाव तुम्हारे व्यवहार में सबसे अधिक है| तुम्हारा वर्ण तुम्हारे कर्म पर निर्भर करता है ,ना की तुम्हारे जन्म पर, यह सत्य है कि इस व्यवस्था की रचना मेरे द्वारा ही की गई है, परन्तु फिर भी तुम मुझे अपरिवर्तनशील और अकर्ता ही समझो अर्थात इन वर्णों की रचना करने के बाद भी मैं किसी वर्ण में नहीं आता क्योंकि ना तो कोई कर्म मुझे प्रभावित करता हैं और ना ही मै किसी फल की महत्वाकांक्षा  रखता हूं | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि इस सृष्टि का निर्माता मैं हूं, मैं ही अविनाशी हूं ।
श्री कृष्ण कहते हैं कि हमें अपने कर्मों को निष्काम भाव से करना चाहिए । हमारे कर्म और उनसे मिलने वाले फल हमे अधिकार से नहीं मिलते हैं बल्कि ईश्वर के द्वारा तय किए जाते हैं इसलिए हमें केवल अपने कर्म का पालन करना चाहिए और फल के लिए उन्हें ईश्वर के ऊपर छोड़ देना चाहिए। हम जो भी कर्म करते हैं उनके फल का अधिकार हमें नहीं होता है ईश्वर ही उन फलों का निर्णय करते हैं और हमें उनसे बिना आसक्ति के स्वीकार करना चाहिए| भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि इंसान को कर्म करने से डरना नहीं चाहिए बल्कि कर्म करते रहना चाहिए और फल ईश्वर के हाथ में छोड़ देना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण हमारे जीवन में हमेशा उपस्थित हैं और हमें सही मार्ग दिखाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं हमें ईश्वर के द्वारा बताए हुए मार्ग पर ही चलना चाहिए। भगवान हमारे सभी कर्मों का साक्षी होते हुए हमेशा हमारे साथ होते हैं और विविध विविध तरीकों से हमें समझाते रहते हैं कि कौन सा कर्म सही है और कौन सा गलत है। भगवान प्रत्येक वस्तु के निर्माता है और प्रत्येक वस्तु उनसे ही उत्पन्न है, उनके द्वारा ही पालित है भगवान ही वर्णाश्रम व्यवस्था के निर्माता है जिसमें सर्वप्रथम बुद्धिमान मनुष्य का वर्ग आता है दूसरा वर्ग क्षत्रियों का आता है तीसरे वर्ग वाले वैश्य कहलाते हैं और चौथा वर्ग शूद्र का आता है इन चारों विभागों की सृष्टि करने वाले भगवान ही है। जो मनुष्य के कर्मों और गुणों पर निर्भर करती है और ये चारों हीं एक आदर्श समाज के निर्माण के समान रूप से जरूरी हैं | आगे भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि यदि हम अपने कर्मों को ईश्वर के लिए समर्पित करते हैं तो हम संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं, इस संसार में हमारे द्वारा किए गए सभी कर्म इस शरीर से ही संबंधित होते हैं जो कि अनित्य होता है, भगवान कहते हैं कि हमें अपने कर्मों को इस तरह से करना चाहिए कि उनसे हमारी आत्मा की उन्नति हो और हम संसार से मुक्ति प्राप्त कर सके, हमारे अंदर कर्म की भावना इतनी ज्यादा होनी चाहिए कि हम अपने कर्म के द्वारा ही ईश्वर को प्राप्त कर सकें और इस संसार से मुक्त हो सके। इसे ही ज्ञानी जनों द्वारा कर योग कहा गया है |

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|| जय श्री कृष्णा ||

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