Bhagavad Gita 3.6 || अध्याय ०३, श्लोक ०६ – भगवद गीता

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Bhagavad Gita 3.6 || अध्याय ०३, श्लोक ० ६  – श्रीमद्भगवत गीता

bhagvad gita 3.6

अध्याय ०3, श्लोक 06

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते || ६ ||

Bhagavad Gita 3.6

शब्दार्थ – जो पांचों इंद्रियों को तो वश में करता है, किन्तु जिसका मन इंद्रियविषयों का चिंतन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और झूठा आचरण करने वाला कहलाता है|  तात्पर्य-भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को मन के द्वारा नियंत्रित करता है और कर्म योग का आचरण करता है, वही सर्वोत्तम है। इसका अर्थ है कि हमें अपनी इन्द्रियों को अपने मन के द्वारा नियंत्रित करना सीखना चाहिए और कर्म योग का आचरण करना चाहिए। इस श्लोक में “इन्द्रियाणि” का अर्थ होता हैं, सभी उन अंगों को जो हमारे शरीर में होते हैं और जिनकी मदद से हम दुनिया से जुड़ते हैं। यह अंग हमारी दृष्टि, सुनने, चखने, सूंघने और स्पर्श करने जैसी क्रियाओं को संभव बनाते हैं, लेकिन कई लोग ऐसे होते हैं जो अपनी इन इंद्रियों को तो नियंत्रण में कर लेते हैं, परंतु मानसिक रुप से उन्हीं विषयों का चिंतन करते रहते हैं जो कि भोग विलास से जुड़े हुए हैं| इस संसार में ऐसे अनेक झूठा आचरण करने वाले व्यक्ति है जो भगवान की भक्ति तो करते हैं, किंतु भक्ति करने का दिखावा करते है, लेकिन हम उन लोगों की इस भक्ति को भगवत भक्ति नहीं कह सकते, ऐसे व्यक्ति दूसरों को तो धोखा देते ही है साथ में खुद को भी धोखा दे रहे होते हैं।  अगर इंसान का मन साफ है तो वह भगवान की भक्ति कहीं भी बैठकर कर सकता है जरूरी नहीं उसको एकांत ही चाहिए। अगर हम भगवान की भक्ति स्वच्छ मन से करते हैं तो अवश्य हमें उसका फल मिलता है और अगर हम भोग विलास की भावना या से भगवत भक्ति करें तो हमारे द्वारा की गई भक्ति व्यर्थ है। इस संसार में ऐसे अनेक पापी व्यक्ति हैं जिन्होंने भगवान की भक्ति तो की है लेकिन सिर्फ भोग विलास की भावना से, ऐसे व्यक्तियों का मन सदैव अशुद्ध रहता है और उनके द्वारा की गई भगवान भक्ति का कोई अर्थ नहीं होता अर्थात् उनके द्वारा की गई भगवान भक्ति व्यर्थ है| भगवान की भक्ति करने के लिए हमें बाहरी दिखावा करने की जरूरत नहीं है अगर जरूरत है तो अपनी इंद्रियों को वश में करने की। आसाराम, राम रहीम और नित्यानंद  जैसे अनेक धूर्त संत हुए है उन्होंने भी भगवत भक्ति की लेकिन उनकी भोग विलास वाली भक्ति को हम भगवान की भक्ति नहीं कह सकते, क्योंकि उनकी इंद्रियां उनके वश में नहीं थी और जो था सब बाहरी था, आंतरिक कुछ भी नहीं था | इसलिए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं, इस प्रकार इंद्रिय संयम का कोई लाभ नहीं है जब मन इंद्रियों से जुड़े विषयों का चिंतन करता रहे |

|| जय श्री कृष्णा ||

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