Bhagavad Gita 6.6 || अध्याय ०६ , श्लोक ० ६ – श्रीमद्भगवत गीता
अध्याय ०6, श्लोक 06
बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् || ०६ ||
शब्दार्थ – मन उसका मित्र है, जिसने स्वयं अपने मन को जीत लिया हो| लेकिन मन उसका शत्रु है और सदैव शत्रु की भांति ही बना रहता है जो उसे स्वयं का ना बना पाया हो अर्थात् जीत ना पाया हो|
तात्पर्य – भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं, जीवन में कुछ भी सार्थक करने के लिए मन पर नियंत्रण होना चाहिए। हर व्यक्ति के लिए यह दो संभावना है या तो मन पर उसका नियंत्रण होगा या फिर मन का नियंत्रण उस पर होगा, या तो तुम मन के सेवक होंगे या फिर मन तुम्हारा सेवक होगा। अब यह तुम्हें देखना है कि तुम्हारे साथ कौन सी संभावना घटित हो रही है।
अक्सर ही व्यक्ति यह कहते हुए सुनाई देते हैं की मैं मन का राजा हूं अर्थात् जो मेरा मन करता है मैं वही करता हूं। परंतु वास्तविकता में ऐसा व्यक्ति मन का राजा नहीं अपितु अपने मन का गुलाम है। मन का राजा तो वह होगा जो अपने मन को खींचकर वहां ला सकें जहां लाना उस परिस्थिति एवं समय के लिए सबसे जरूरी या उचित हो, ना कि व्यक्ति खुद अपने मन के पीछे इधर-उधर भटकता रहे। इस तरह तो वह व्यक्ति कभी भी कहीं नहीं पहुंच सकेगा और अपने संपूर्ण अमूल्य जीवन को इसी तरह व्यर्थ कर बैठेगा|
यह सब मन की चंचल प्रवृत्तियों के कारण होता है। सामान्यतः व्यक्ति का मन बाह्य मुखी होता है अर्थात् भौतिक परिस्थितियों में वस्तुओं जगह आदि का प्रभाव इस पर पड़ता है और उनकी वजह से इधर-उधर भटकता रहता है।
उसे पता नहीं होता कि उसे जाना किधर है, जिस तरह नदी का पानी नहीं जानता कि उसे समुंदर में मिलना है या कहीं और, वह बस जहां उसे जगह मिलती है बहने के लिए वह वहां बहा चला जाता है, चाहे वह कोई झील हो, कोई नाला हो या फिर कोई नदी| उसी प्रकार मन भी अपने एक निश्चित उद्देश्य से भटक कर जहां उसे सुलभता लगती है वह वहां बहा चला जाता है।
ऐसे में अगर व्यक्ति अपने मन का गुलाम हो जाए तो वह भी जीवन भर सिर्फ इधर-उधर भटकने में ही लगा रहेगा और अपने परम लक्ष्य तक कभी नहीं पहुंच पाएगा |
इसलिए मैं कहता हूं अर्जुन इस तरह का मन एक शत्रु के समान है। जो कभी भी तुम्हें तुम्हारे निश्चित कार्य में सफल नहीं होने देगा। इसलिए तुम्हें चाहिए कि तुम अपनी बाह्य लड़ाइयों से पहले अपने मन पर अपनी जीत सुनिश्चित करो।
मन पर जीत के लिए तुम्हें किसी बाह्य अस्त्र-शस्त्र की जरूरत नहीं है, इसके लिए जिस शस्त्र की तुम्हें आवश्यकता है वह सदैव तुम्हारे पास है, वह है तुम्हारी बुद्धि। क्योंकि मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है इसलिए वह तुम्हारी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है, परंतु बुद्धि मन से भी श्रेष्ठ है इसलिए अपनी बुद्धि की सहायता से अगर तुमने अपने मन को जीत लिया तो अपनी इंद्रियों पर भी विजय पा लोगे । जिससे तुम अपने निश्चित उद्देश्य की तरफ अपने मन और इंद्रियों को केंद्रित करके अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर सकोगे।
ऐसे में तुम्हारा मन तुम्हारे मित्र की भांति कार्य करेगा और सदैव तुम्हारे हर उस कार्य में सहायक सिद्ध होगा जो तुम्हारे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अति आवश्यक है।जिस समय तुमने अपनी बुद्धि की सहायता से अपने मन को बाह्य मुखी से अन्तःमुखी कर लिया जिससे तुम्हारी इंद्रियां भी अन्तःमुखी हो जाएंगी, इस स्थिति को प्रत्याहार कहा जाता है| ऐसी स्थिति में व्यक्ति हमेशा भौतिक जगत में होने वाले उतार-चढ़ाव से मुक्त रहता है। यह प्रत्याहार अष्टांग योग के आठ अंगों में से एक है इसलिए मैं तुमसे कहता हूं “योगस्थ: कुरु कर्माणि” अर्थात् सदैव योग में स्थित रहकर कार्य करें |