तुलसी दास (Tulsidas) कैसे बन गए महान संत

तुलसीदास (Tulsidas)

Tulsidas Story: यह बात उस समय की है जब “रामचरितमानस” लिखने वाले रामभक्त संत तुलसीदास (Tulsidas) जी सिर्फ तुलसी थे| बचपन में नाम रखा गया था राम बोला जो बाद में तुलसी पड़ गया |

तुलसी(Tulsidas) का नया नया विवाह हुआ था, पत्नी का नाम था रत्नावली।| जैसा नाम वैसा रूप | जैसे ही तुलसी(Tulsidas) ने अपनी पत्नी का मुख देखा तो वही तस्वीर उनके दिल में बस गई | सौंदर्य ऐसा की तुलसी(Tulsidas) चाहे घर में होते या बाहर, कुछ कार्य कर रहे होते या खाली बैठे होते पत्नी का ही चिंतन उनके मन में चलता रहता | यहां तक की पूजा पाठ, भजन ध्यान भी करते तो भी मन रत्नावली में ही लगा रहता |
रत्नावली घर से बाहर आस पड़ोस में जाती तो तुलसी भी पीछे पीछे चलने लगते |
समय इसी तरह बीतता रहा कई बार रत्नावली के घर से बुलावा आता या कोई रत्नावली को लेने आता तो तुलसी(Tulsidas) को रत्नावली के दूर जाने की बात सोच कर ही घबराहट होने लगती जिसकी वजह से तुलसी(Tulsidas) कोई ना कोई बहाना कर के रत्नावली को अपने घर पर ही रोक लेते और कहीं जाने ना देते|

बेचारे ससुराल वालों को खाली हाथ ही वापस जाना पड़ता |
अब तुलसी(Tulsidas) के इस व्यवहार की बात आस पास फैलाने लगी, जिसे सुन कर सब तुलसी का मजाक उड़ाने लगे | तुलसी तो तुलसी थे, रत्नावली में मन ऐसा लगा था की चाहे कोई कुछ भी कहे कोई असर ना होता, जब इन लोगो की बातें रत्नावली के कानों में पड़ती तो उसे बहुत बुरा लगता | कई बार वह तुलसी को समझाती, लेकिन कुछ समय बाद तुलसी आपनी आदतों से मजबूर हो कर पहले की भांति ही व्यवहार करने लगते | अगर तुलसी की इस स्थिति को ध्यान पूर्वक देखा जाए तो पता लगता है की उनका ध्यान मोह वश अपनी पत्नी रत्नावली में इस प्रकार लग गया था की वे सही, गलत, उचित, अनुचित, सबका भेद भूल गए थे |
वे अपने आप का मूल्यांकन भी नहीं कर पा रहे थे की किस समय उन्हें कौनसा कार्य करना चाहिए और कौनसा नहीं |

और यहां यह बात सिर्फ तुलसीदास जी की ही नहीं हो रही है हमारे जीवन में भी कई बार ऐसा होता है जब हम किसी वस्तु या किसी व्यक्ति के लिए इस कदर पागल हो जाते हैं की हमें यह तक होश नहीं रहता की जो हम कर रहे हैं उससे स्वयं पर, सामने वाले व्यक्ति पर या हमारे परिवार पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, जिसके अंत में जाकर हम ऐसे निर्णय ले जाते हैं जिनके बाद फिर पछताना ही पड़ता है |
इस तरह की परिस्थिति ना आए इसके लिए जरूरी है स्वयं का समय समय पर या दिन में समय निकाल कर एक बार अपनी दृष्टि से मूल्यांकन जरूर करे |
इसके लिए कुछ मेडिटेशन तकनीकें भी हैं जो इसमें हमारी मदद करती हैं | जो की आपको वह दृष्टि प्रदान करती हैं जिससे आप स्वयं का उचित मूल्यांकन कर सकें |

कई वर्षों तक तुलसी और रत्नावली का जीवन इसी तरह चलता रहा |एक दिन की बात है जब तुलसी किसी कार्य से बाहर गए थे | संध्या को जैसे ही वह घर लौटे तो घर में रत्नावली नहीं मिली यह देख कर तुलसी की ह्रदय गति बढ़ गई | आस पास पूछा तो वहां से भी रत्नावली की कोई खबर हाथ ना लगी |
तुलसी का नकारात्मक कल्पनाओं ने बुरा हाल कर दिया था | तभी रत्नावली की एक सखी के घर से पता लगा की उसके पिताजी की बहुत ज्यादा तबियत बिगड़ गई थी जिसकी वजह से उसे तुरंत अपने मायके निकलना पड़ा |
यह सुनकर थोड़ी देर के लिए तुलसी को सुकून आया लेकिन फिर कुछ ही पल समझ आया की अब उसे अपने घर में बिना रत्नावली के ही रहना पड़ेगा यह सोचते हीतुलसी का दिल अत्यंत दुखी हो गया |

वह सखी के घर से ही सीधे रत्नावली को लेने के लिए निकल गए, तेज मूसलाधार बारिश शुरू हो चुकी थी लेकिन तुलसी को उस समय ना मूसलाधार बारिश नजर आ रही थी और ना ही रत्नावली के बीमार पिता |
रास्ते में एक बड़ी नदी जिसमें मूसलाधार बारिश की वजह से उफान आ रहा था | लेकिन कैसे ना कैसे तुलसी अपनी जान पर खेल कर उसे भी पार कर गए |
मान्यता है की तुलसी को नदी पार करने का जब कोई समाधान नजर ना आया तो नदी में तैरती एक लाश की सहायता से उन्होंने नदी पार की | यह सब करते हुए तुलसी अपने मन में सिर्फ यही सोच रहे थे कि कैसा होगा वो पल जब उनकी मुलाकात रत्नावली से होगी| उन्हें देख कर वह फूली ना  समाएगी |

जब उसे पता लगेगा की तुलसी ने उसके लिए कितनी समस्याओं का सामना करके यहां तक पहुंचा है तो वह ऐसे पति के चलते कितनी गर्वांवित महसूस करेगी, उसका मन तो पूरा तुलसी के लिए प्रेम से ही भर जाएगा| जैसे जैसे यात्रा आगे बढ़ रही थी, तुलसी के मन में इस तरह की कल्पनाओं का संसार बसता जा रहा था| आखिरकार तुलसी अपने ससुराल पहुंच गए | मध्य रात्रि का समय था, घर के दरवाजे बंद थे तो तुलसी को लगा इस समय दरवाजा खट-खटाना सही नही रहेगा इसलिए उसने सीधे रत्नावली के कमरे में जाने की योजना बनाई जो ऊपर की मंजिल   पर था| तुलसी को एक लटकती हुई  रस्सी दिखाई दी, जिसकी सहायता से वह सीधे रत्नावली के कमरे में पहुंच गए |

रत्नावली ने आवाज सुनी और जैसे ही उसने तुलसी को अपने सामने देखा वह अचंभे में पड़ गई, इसके बाद तुलसी ने उन्हें पूरा वृतांत सुनाया | जैसे जैसे तुलसी की कथा आगे बढ़ती जाती, रत्नावली का क्रोध और भी बढ़ता जाता और आखिर में आते आते रत्नावली क्रोध से आग बबूला हो चुकी थी |अब उसके सब्र का बांध टूट चुका था |
रत्नावली ने कहा- एक हाड़ मांस के पुतले के लिए इतना संघर्ष, इतना मोह, एक नश्वर शरीर को पाने के लिए इतनी लालसा, यह सब करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती |
जिसे तुम प्रेम कहते हो वो प्रेम नहीं वो सिर्फ अहंकार और मोह है तुम्हारा | अगर प्रेम होता तो तुम्हें सिर्फ तुम्हारी ही नहीं, मेरी समस्याएं भी नजर आती | प्रेम होता तो तुम्हें मेरे प्रसन्न चेहरे के पीछे छुपा मेरा दुख भी नजर आ गया होता |

जितना प्रयास तुम मुझे पाने के लिए, मेरे हाड़ मांस के इस नश्वर शरीर को पाने के लिए कर रहे हो अगर उससे आधा भी प्रयास भगवान राम को पाने के लिए किया होता तो वो भी तुम्हें मिल चुके होते, तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन सार्थक हो चुका होता, तुम इस जन्म- जन्म के बंधनों से मुक्त हो चुके होते | इस तरह से रत्नावली ने तुलसी को अनेक बात सुनाई और कहा-

“लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहो मैं नाथ।।

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीति” ||

अपनी पत्नी से इतना सब कुछ सुन, तुलसी के कल्पनाओं के बादल पूरी तरह से अदृश्य हो चुके थे | उसके मन में चल रहा कोलाहल अब शांत हो चुका था | वह जिस खिड़की से वापस आए उसी से वापस उत्तर गए |
रत्नावली द्वारा कमरे की बंद की गई खिड़की, तुलसी के ह्रदय में सत्य का द्वार खोल गई| आते समय जो पैर तेजी दिखा रहे थे उनकी गति अब स्थिर और धीरे हो चुकी थी | मूसलाधार वर्ष भी ऐसे शांत हो गई जैसे कि, जहां पहुंचाने की वो जल्दी में थी, जहां पहुंचने के लिए उसने बरसाना शुरू किया वह वहां पहुंच गई हो | तो इस तरह जन्म हुआ भारत के उस महान संत तुलसी दास का जिन्हें आज हम जानते हैं | जिनकी लिखी राम चरित मानस आज घर घर में हैं |

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इसके बाद किस तरह से सन्यास लेकर तुलसी दास जी राम भक्ति में लगे, कैसे उन्हें हनुमान जी और भगवान राम के साक्षात दर्शन हुए |(