Bhagavad Gita 2.15 || अध्याय ०२ , श्लोक १ ५ – श्रीमद्भगवत गीता
अध्याय ०2, श्लोक 15
यं हि न व्यथ्यन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ||
शब्दार्थ – हे अर्जुन ! जो पुरुष सुख तथा दु;ख मे विचलित नहीं होता और इन दोनों मे समभाव रखता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है |
Bhagavad Gita 2.15
तात्पर्य – भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन जो पुरुष सुख और दुख के प्रति समान भाव रखते हैं अर्थात जो सुख और दुख में समान रहते हैं जो स्थिर बुद्धि वाले होते हैं उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है अर्थात हमें भी सुख और दुख में समान भाव रखना चाहिए और शांति के साथ समस्त परिस्थितियों का सामना करना चाहिए।
आगे श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन व्यक्ति के जीवन में सुख और दुख दोनों ही आते हैं कहीं सुख ज्यादा होते हैं दुख कम होता है कहीं दुख ज्यादा होता है सुख कम होता है तो इंसान को सुख के समय ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए और दुख के समय ज्यादा दुखी नहीं होना चाहिए अतः इंसान को दोनों ही परिस्थितियों में समान रहना चाहिए। सांसारिक बंधनों से ऊपर उठने के लिए हमारे अंदर दुखों को सहन करने की क्षमता होनी चाहिए हमें सुख और दुख के प्रति समान भाव रखना चाहिए एवं मानसिक स्थिरता के साथ सभी परिस्थितियों का सामना करना चाहिए।
हमें सुख या फिर दुख में कभी इतना नहीं डूबना चाहिए की हम इस सत्य से ही दूर हो जाएं की जो यह सुख या फिर दुख है यह परिवर्तनशील है |
इसलिए जीवन में जब भी सुख आए तो उसके चलते हमें अहंकार में नहीं आना चाहिए ना ही हमें अन्य व्यक्तियों को नीच दृष्टि से देखना चाहिए |
इसी तरह जब जीवन में सुख आए तो हमें उसके चलते कभी भी पूर्णतः हताश नहीं होना चाहिए ना ही इसके चलते अन्य सुखी लोगो से घृणा करनी चाहिए |
क्योंकि जैसा भगवान श्री कृष्ण ने बताया यह सब छनिक मात्र हैं और माया का एक भाग है |
दुख और सुख व्यक्ति के जीवन के बाहरी पहलू हैं, जिन पर हमारा कभी भी पूर्णतया नियंत्रण नहीं हो सकता परंतु हम चाहे तो दोनो ही परिष्ठियों में अनादमय और शांत रह सकते हैं क्योंकि भीतर से हम अपने आप को कैसा रखना चाहते हैं यह हम निर्भर करता है |इसलिए दोनो में हमने एक ही भाव रखना चाहिए जो है कृष्णा भक्ति का भाव |
|| जय श्री कृष्णा |