ओशो (Osho) की ‘संभोग से समाधि’ पर सद्गुरु जग्गी वासुदेव का जवाब

ओशो की ‘संभोग से समाधि’ पर सद्गुरु जग्गी वासुदेव का जवाब

ओशो (Osho) की ‘संभोग से समाधि’ पर सद्गुरु जग्गी वासुदेव का जवाब

ओशो की किताब “संभोग से समाधि” ने आध्यात्मिकता और संभोग के बीच के संबंधों पर एक गहरी चर्चा छेड़ी है। इस पर सद्गुरु जग्गी वासुदेव का विचार थोड़ा भिन्न है। उन्होंने इस विषय पर बड़ी ही स्पष्टता और सरलता से अपनी बात रखी है कि जीवन के विभिन्न पहलुओं को संतुलित दृष्टिकोण से देखना आवश्यक है। उनके अनुसार, संभोग को एक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए, न कि इसे आध्यात्मिकता के साथ जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए।

संभोग को आध्यात्मिक प्रक्रिया बनाने की चुनौती

सद्गुरु के अनुसार, संभोग एक स्वाभाविक और सामान्य जीवन ऊर्जा है, जिसका मुख्य उद्देश्य प्रजनन और मानव जाति का संरक्षण है। यह हमारे जीवन में एक साधारण प्रक्रिया है जो जीवित रहने और प्रजातियों के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। उनके अनुसार, जब तक इस ऊर्जा को सचेत रूप से रूपांतरित नहीं किया जाता, यह संभोग के रूप में प्रकट होती है, जो प्रजनन क्रिया के लिए आवश्यक है। परंतु इसे आध्यात्मिकता का मार्ग बनाने की कोशिश करना एक कठिन और अनुशासनपूर्ण प्रक्रिया है, जिसके लिए बहुत अधिक ध्यान और अनुशासन की आवश्यकता होती है।

संभोग और ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग

सद्गुरु इस विचार को खारिज नहीं करते कि हर चीज़ ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग हो सकती है, परंतु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि हर किसी के लिए यह रास्ता उपयुक्त नहीं होता। वे बताते हैं कि यदि आप किसी चीज़ को उसके मूल स्वरूप में देखना और समझना जानते हैं, तो वह चीज़ आपको दिव्यता तक पहुँचा सकती है। लेकिन संभोग को आध्यात्मिक मार्ग के रूप में अपनाने के लिए अत्यधिक अनुशासन और सचेतना की आवश्यकता होती है, जो अधिकांश लोगों के लिए कठिन हो सकता है।

ओशो (Osho) की ‘संभोग से समाधि’ पर सद्गुरु यह सलाह देते हैं कि संभोग को एक साधारण प्राकृतिक क्रिया के रूप में ही लेना चाहिए, न कि उसे आध्यात्मिक प्रक्रिया में बदलने की कोशिश करनी चाहिए। वह बताते हैं कि आध्यात्मिकता और संभोग को अलग-अलग रखना अधिक सही और व्यावहारिक होगा, क्योंकि यह दोनो प्रक्रियाएं एक-दूसरे से भिन्न हैं और उन्हें आपस में जोड़ने की आवश्यकता नहीं है।

 सामाजिक मानकों का प्रभाव

सद्गुरु इस बात पर भी जोर देते हैं कि संभोग को लेकर समाज में बहुत अधिक सोच-विचार किया जाता है, जो स्वाभाविक नहीं है। उनका कहना है कि समाज के मानकों और अपेक्षाओं के अनुसार चलने से कई बार लोग अपने स्वाभाविक प्रवृत्तियों को पहचान नहीं पाते और अपने वास्तविक आवश्यकताओं को नजरअंदाज करते हैं। यदि हम अपनी जरूरतों को सामाजिक मानकों से परे जाकर समझने की कोशिश करें, तो हमें यह अहसास होगा कि अधिकांश लोगों को वास्तव में संभोग की उतनी अधिक जरूरत नहीं होती, जितनी कि उन्हें लगता है।

ओशो (Osho) की ‘संभोग से समाधि’ पर सद्गुरु यह भी कहते हैं कि संभोग, जीवन के अन्य आवश्यकताओं जैसे भोजन, पानी और शारीरिक प्रक्रियाओं की तुलना में एक छोटा हिस्सा है। इसके बावजूद, समाज में इसे बहुत बढ़ा-चढ़ा कर देखा जाता है, जो लोगों के मन में अपराधबोध और सही-गलत के विचार उत्पन्न करता है। सद्गुरु का मानना है कि यदि हम इसे जीवन के एक छोटे हिस्से के रूप में स्वीकार करें, तो यह मानसिक रूप से उतना बोझ नहीं बनेगा।

 आध्यात्मिकता और संभोग को अलग रखने का महत्व

ओशो (Osho) की ‘संभोग से समाधि’ पर सद्गुरु का मानना है कि आध्यात्मिकता और संभोग को अलग-अलग रखना चाहिए। वे कहते हैं कि यह संभव है कि हम हर चीज़ को आध्यात्मिकता से जोड़ सकते हैं, लेकिन ऐसा करने के लिए बहुत अधिक ध्यान और समझ की आवश्यकता होती है। इसके बजाय, वे यह सलाह देते हैं कि हम अपनी आध्यात्मिकता को अलग रखें और अपनी संभोग को एक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में देखें।

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उदाहरण से व्याख्या

सद्गुरु इस विचार को समझाने के लिए एक मजाकिया उदाहरण का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं कि अगर हम संभोग को ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग मान सकते हैं, तो क्या हम टॉयलेट जाने जैसी शारीरिक प्रक्रियाओं को भी दिव्यता तक पहुँचने का मार्ग मान सकते हैं? यह उदाहरण इस बात को दर्शाता है कि जीवन की हर चीज़ का आध्यात्मिक महत्व नहीं होता, और हमें इसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए जैसा वह है।

 निष्कर्ष

सद्गुरु का ओशो (Osho) की ‘संभोग से समाधि’ पर मुख्य संदेश यह है कि संभोग को संभोग के रूप में ही लिया जाए और उसे आध्यात्मिक प्रक्रिया बनाने की कोशिश न की जाए। यह एक स्वाभाविक और आवश्यक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य प्रजातियों का संरक्षण है। लेकिन इसे ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बनाने की कोशिश करना एक जटिल और अनुशासनात्मक प्रक्रिया है, जिसके लिए अधिकांश लोग तैयार नहीं होते। आध्यात्मिकता और संभोग को अलग रखना एक समझदारीपूर्ण दृष्टिकोण है, जिससे जीवन को संतुलित और शांतिपूर्ण बनाया जा सकता है।