ज्यादा सोच विचार करने वालों को प्रेमानन्द जी महाराज ने दी जरूरी सलाह | Premanand Ji Maharaj on Overthinking

ज्यादा सोच विचार करने वालों को प्रेमानन्द जी महाराज ने दी जरूरी सलाह | Premanand Ji Maharaj on Overthinking

ज्यादा सोच विचार करने वालों को प्रेमानन्द जी महाराज ने दी जरूरी सलाह | Premanand Ji Maharaj on Overthinking

Premanand Ji Maharaj on Overthinking : हमारे जीवन में अधिक सोचने की आदत एक सामान्य समस्या बन चुकी है। खासतौर पर, जब हम अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं, तो हमारी इंद्रियां लगातार बाहरी भोगों और इच्छाओं की कल्पना करती रहती हैं। प्रेमानंद जी महाराज ने इस मुद्दे पर गहरा ध्यान दिया है और अपने उपदेशों में बताया कि अधिक सोचने और कल्पनाओं में खो जाने से हम अपनी असली शांति और उद्देश्य से भटक जाते हैं। उनका यह संदेश है कि भोगों और इच्छाओं में उलझने से हमारा मन अशांत होता है और हम वास्तविक सुख से वंचित रह जाते हैं।

इच्छाओं और भोगों पर विचार

प्रेमानंद जी महाराज (Premanand Ji Maharaj on Overthinking) के अनुसार, हमारी पांच इंद्रियां—दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, गंध और स्वाद—हमारे मन को भोगों के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करती हैं। उदाहरण स्वरूप, हम कभी सोचते हैं कि यदि हमें यह वस्तु मिल जाए या कोई विशेष चीज़ प्राप्त हो जाए, तो हमारा जीवन बेहतर हो जाएगा। इस तरह की सोच हमें बाहरी भोगों की ओर आकर्षित करती है, जो न केवल हमारी ऊर्जा को नष्ट करती है, बल्कि मानसिक शांति भी छीन लेती है। महाराज जी ने बताया कि ये इच्छाएं और कल्पनाएं माया से उत्पन्न होती हैं, और इससे हम अपनी आत्मिक शांति और वास्तविक सुख से दूर होते जाते हैं।

साधु और सांसारी जीवन में अंतर

प्रेमानंद जी महाराज (Premanand Ji Maharaj on Overthinking) ने साधु और सांसारी व्यक्ति के बीच अंतर को बहुत स्पष्ट रूप से समझाया है। सांसारी व्यक्ति हमेशा भौतिक भोगों और कल्पनाओं में खोया रहता है, जबकि साधु का जीवन आत्मा के साथ जुड़ा होता है। साधु अपनी आंतरिक भावनाओं से मार्गदर्शित होता है, न कि बाहरी कल्पनाओं से। उनका जीवन शास्त्रों और धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार चलता है, और उनका ध्यान केवल ईश्वर की भक्ति और सेवा पर केंद्रित होता है। जबकि सांसारी व्यक्ति बाहरी भोगों के पीछे भागता है, साधु अपने भीतर के सत्य और भगवान के दिव्य गुणों की ओर ध्यान केंद्रित करता है।

तृष्णा और जीवन की वास्तविकता

प्रेमानंद जी महाराज (Premanand Ji Maharaj on Overthinking) ने तृष्णा को उन इच्छाओं से जोड़ा है जो हमें भोगे हुए विषयों को पुनः प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न करती हैं। तृष्णा हमारे जीवन में मानसिक अशांति का कारण बनती है। जितना हम भोगों का अनुभव करते हैं, उतनी ही हमारी इच्छाएं बढ़ती जाती हैं, लेकिन सच्चा संतोष कभी नहीं मिलता। प्रेमानंद जी महाराज ने स्पष्ट रूप से कहा कि तृष्णा को त्यागकर हमें प्रभु की प्राप्ति की ओर कदम बढ़ाने चाहिए, क्योंकि यही हमारी असली मुक्ति का मार्ग है।

विचारों और इच्छाओं का त्याग

प्रेमानंद जी महाराज (Premanand Ji Maharaj on Overthinking) का यह भी उपदेश है कि जब हम प्रभु के मार्ग पर सही दिशा में चलते हैं, तो कोई भी भौतिक समस्या हमें पराजित नहीं कर सकती। शास्त्रों के अनुसार जीने से हम अपने सभी दुखों से मुक्त हो सकते हैं। हमारा मुख्य उद्देश्य भगवान की सेवा और भक्ति होना चाहिए, न कि भोगों और सांसारिक वस्तुओं का संचय करना। प्रेमानंद जी महाराज हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि हमें अपनी इच्छाओं और तृष्णाओं को समाप्त करना चाहिए, ताकि हम जीवन का वास्तविक उद्देश्य समझ सकें और भगवान के साथ एक आत्मिक संबंध स्थापित कर सकें।

भक्ति और शरणागति का महत्व

प्रेमानंद जी महाराज (Premanand Ji Maharaj on Overthinking) ने भक्ति और शरणागति के महत्व को भी समझाया है। उनका कहना था कि जब हम पूरी श्रद्धा से प्रभु के प्रति अपनी शरणागति स्वीकार करते हैं, तो सभी मानसिक और शारीरिक समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाती हैं। असली भक्ति यह है कि हम अपने मन, वचन और शरीर से भगवान के प्रति समर्पित हो जाएं और बिना किसी अन्य इच्छाओं के केवल उनकी सेवा में समर्पित रहें।

अहंकार का नाश

प्रेमानंद जी महाराज (Premanand Ji Maharaj on Overthinking) ने यह भी कहा कि एक साधु या भक्त के जीवन में अहंकार और अभिमान का कोई स्थान नहीं होता। जब हम अपने हृदय से अहंकार को निकाल फेंकते हैं, तो हमारे भीतर शांति, संतोष और दिव्य गुणों का जागरण होता है। यह अहंकार का नाश हमें मानसिक शांति प्रदान करता है और हमें आत्मिक उन्नति की दिशा में अग्रसर करता है।

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निष्कर्ष

प्रेमानंद जी महाराज का उपदेश (Premanand Ji Maharaj on Overthinking) यह स्पष्ट करता है कि अधिक सोचने और तृष्णाओं में खो जाने से बचना चाहिए। हमें अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करते हुए भगवान की भक्ति और सेवा में मन लगाना चाहिए। यदि हम अपने विचारों को शुद्ध और सकारात्मक बनाए रखते हैं, तो न केवल हम जीवन में सुखी होंगे, बल्कि हम आत्मिक उन्नति भी प्राप्त करेंगे। प्रेमानंद जी महाराज का यह उपदेश हमें यह सिखाता है कि हमें भोगों से परे जाकर भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा और भक्ति को प्राथमिकता देनी चाहिए, ताकि हम जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझ सकें और मोक्ष की प्राप्ति कर सकें।