राधा अष्टमी पर करें राधा नाम का जप | प्रेमानंद जी महाराज ने बताया महत्व
प्रेमानंद जी महाराज ने राधा अष्टमी के सन्दर्भ में जो सत्संग का वर्णन किया है, वह गहरी भक्ति और समर्पण की भावना से भरा हुआ है। इसमें प्रेम, विश्वास, और आत्मसमर्पण के महत्व पर जोर दिया गया है। भक्त को अपने आराध्य देव, विशेषकर राधा और कृष्ण के प्रति अपार प्रेम और अनुराग की भावना होनी चाहिए। इसमें बताया गया है कि नाम जप, लीला गायन और सेवा से उपासक अपने आराध्य के निकट आते हैं।
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Toggleउपासना का तात्पर्य
प्रेमानंद जी महाराज बताते हैं की राधा अष्टमी पर उपासना का अर्थ केवल धूपबत्ती लगाना नहीं है, बल्कि अपने आराध्य के निकट रहना है। यह निकटता शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक होती है। भक्त का मन सदैव अपने प्रभु के साथ रहना चाहिए, जिससे वे कभी अकेला महसूस नहीं करेंगे। यह उपासना की गूढ़ता है। जब उपासक अपने आराध्य के साथ होता है, तो उसे जीवन में किसी और चीज की चिंता नहीं होती।
प्रिय लाल का संग
प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं कि राधा जी का प्रिय लाल (कृष्ण) के साथ भक्त का गहरा संबंध होता है। जैसे एक माँ अपने पुत्र के पत्र को पढ़कर आनंदित होती है, वैसे ही भक्त को भी अपने आराध्य की हर बात प्रिय होनी चाहिए। जब भक्त अपने प्रभु के साथ अपनापन महसूस करता है, तो उसे नींद या आलस्य नहीं आ सकता। सच्चे भक्त को हर पल अपने प्रभु के साथ होने का एहसास रहता है, और यह एहसास उसे जीवन की हर कठिनाई से उबारता है।
राधा नाम जप और सेवा का महत्व
राधा अष्टमी पर राधा नाम जप और सेवा भक्त की साधना का मुख्य अंग होते हैं। सेवा का मतलब केवल शारीरिक कर्म नहीं है, बल्कि उसमें प्रभु के प्रति गहरा प्रेम और समर्पण होना चाहिए। सेवा करते समय मनोयोग होना चाहिए, ताकि हर कार्य में प्रभु की प्रसन्नता का ध्यान रखा जा सके। जैसे एक पात्र को पूरी तरह से साफ किया जाता है, वैसे ही सेवा में भी शुद्धता और पवित्रता होनी चाहिए।
अनुराग और बैराग का संतुलन
अनुराग (प्रेम) इतना समर्थ होता है कि बैराग (वैराग्य) की आवश्यकता नहीं होती। जब भक्त का प्रेम अपने प्रभु के प्रति गहरा हो जाता है, तो वह अपने आप उन चीजों से दूर हो जाता है जो उसे प्रभु से दूर कर सकती हैं। यह अनुराग ही उसे संसारिक मोह से बचाता है और उसे प्रभु की ओर खींचता है।
गुरु कृपा का कवच
गुरु की कृपा भक्त के लिए सबसे बड़ा कवच होती है। गुरु कृपा के रहते हुए कोई भी भक्त को भ्रष्ट नहीं कर सकता। लेकिन अहंकार भक्त को हमेशा गिरा सकता है। इसलिए, भक्त को सदैव शरणागत बने रहना चाहिए और अपने अहंकार को छोड़कर गुरु कृपा पर विश्वास करना चाहिए।
सार
इस सत्संग का मुख्य संदेश है कि भक्त का जीवन प्रभु की सेवा, नाम जप, और उनके प्रति अपार प्रेम में डूबा रहना चाहिए। संसारिक मोह-माया से दूर होकर, जब भक्त अपने प्रभु के साथ सच्चा अपनापन महसूस करता है, तो उसे जीवन में कोई भी दुख या कष्ट नहीं छू सकता।