ओशो (Osho) द्वारा सुनाई गई अद्भुत कहानी | कर्मयोग से ज्ञानयोग | Osho Story in Hindi
ओशो (Osho) द्वारा सुनाई गई अद्भुत कहानी | कर्मयोग से ज्ञानयोग | Osho Story in Hindi : एक बार एक आत्मज्ञानी संत के पास एक युवक आया, उसने संत के आगे सर छुकाया और कहा गुरुजी मैं जानना चाहता हूं की सत्य क्या है, आखिर क्या है वो जिसके बारे में वेद, उपनिषद और ज्ञानी जन बात करते हैं|
संत मुकराए और कहा बेटे तुम सत्य जानना चाहते हो या सत्य के बारे में जानना चाहते हैं?
यह सवाल सुन कर युवा व्यक्ति सोच में पड़ गया क्योंकि यह सवाल वो कई ज्ञानी लोगो से पूछ चुका था परंतु कभी ऐसा जवाब ना मिला और ना ही उसने कभी इस बारे में कभी चिंतन किया|
उसने सोचा सत्य के बारे में जानने से तो अच्छा है सत्य को ही जान लिया जाए क्योंकि अगर सत्य को ही जान गए तो इसके सत्य के बारे में भी जानकारी मिल ही जायेगी|
युवक ने कहा गुरुजी में सत्य जानना चाहता हूं |
यह सुन एक बार फिर संत मुस्कराए और कहा अच्छा सत्य जानना चाहते हो, सोच लो सत्य के बारे में जानने की कीमत कुछ भी नही वह निशुल्क है परंतु जो सत्य है वो बहुत ही महंगा है, इतना महंगा है की कीमत चुकाने में कइयों के कई साल, कई दशक और कई जीवन काल लग गए, तुम्हें लगता तुम इसकी कीमत चुका पाओगे?
ओशो (Osho) द्वारा सुनाई गई अद्भुत कहानी | कर्मयोग से ज्ञानयोग | Osho Story in Hindi
इस बार युवक भी जोश में आ चुका था उसे यह सब एक चुनौती जैसा लगा उसने कहा नहीं महाराज बदले में आप मेरे प्राण ही क्यों ना लेले में नहीं भागूंगा ना ही अपने संकल्प से हटूंगा में सत्य जानना चाहता हूं और सत्य जानकर ही यहां से जाऊंगा चाहे कीमत कुछ भी हो, यह मेरा आपको वचन है|
युवक का जोश और सत्य जानने के प्रति उसकी इच्छा शक्ति देख संत प्रसन्न हो गए लेकिन बिना अपनी प्रसन्नता व्यक्त किए कहा ठीक है तुझे बता दूं इस आश्रम में मेरे कई ज्ञानी और विद्वान शिष्य हैं, जो दिन भर ध्यान साधना करते हैं |
इनके भोजन के लिए गेहूं जो बाहर से पिसवाना पड़ता था उसे से अब तू खुद पिसेगा तेरा हर दिन का अब यही काम है और यही तेरी साधना है | लेकिन ध्यान रहे आस पास होने वाली बातों और कार्यों का ना तो तुझे भागीदार बनाना है ना किसी से बात चीत करनी हैं बस जो तुझे काम दिया है उस पर ही तेरा पूरा ध्यान होना चाइए | और हां एक बात का जरूर ध्यान रखना चाहे कुछ भी हो अब मेरे पास कभी ना आना चाहे कुछ पूछने का मन हो या बताने का |
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यह बात सुन कर युवक सोच में पड़ गया लेकिन अपने दिए हुए वचन के चलते अब वह पीछे नहीं हट सकता था, उस वचन के पक्के युवक ने संत को नमस्कार किया और अगले ही दिन से आश्रम में सभी के लिए चक्की चलाते हुए गेहूं पिसने का कार्य शुरू कर दिया|
इस आश्रम में लगभग 500 लोग रहते थे | इसलिए गेहूं पिसने का काम इतना ज्यादा हो गया था की युवक सुबह रसोई में घुसता दिन भर चक्कती को चलता और फिर रात्रि में ही बाहर आ पता |
आस पास उसे अन्य शिष्यों की भिन्न भिन्न प्रकार की, सामान्य और ज्ञानवर्धक वार्तालाप सुनाई देती | किसी को सुन कर उसका पूरा पूरा मन राजी हो जाता तो कुछ बातों पर उसका मन विरोध करता | इच्छा होती की वहां जाऊं लोगो के वार्तालाप में शामिल होऊं अपना भी पक्ष रखूं आपनी तरफ से भी कुछ जवाब दूं लेकिन फिर उसे याद आता गुरु जी ने इस सब में शामिल होने की पूर्णतः मना की है, फिर याद आता की सिर्फ शामिल होने की ही नहीं इन बातों पर ध्यान देने की भी मनाही है और गुरुजी ने कहा हुआ है की पूरा ध्यान सिर्फ चक्की पर रहे |
इसके बाद हजारों बार युवक का मन अपने काम से भटका और हजारों बार वह अपने मन और इन्द्रियों को खींच कर वापस अपने काम पर ले आता|
यह सब ऐसे ही चलता रहा, कुछ दिन निकलें, महीने निकलें, और कुछ साल भी निकल गए..
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आस पास होने वाली गतिविधियों पर कोई प्रतिक्रिया ना करने की वजह से और बार बार मन को काबू में करने के इस अभ्यास के चलते धीरे धीरे युवक का मन अब शांत और एकाग्र होने लगा था |
क्योंकि मन भी तब ही तक चंचल और अशांत रहता है जब तक की उसे जानकारियों, किस्सों और कहानियों का भोजन मिलता है |
बिना भोजन के जिस तरह शरीर कमजोर होकर किसी की भी गुलामी स्वीकार करने को तैयार हो जाता है उसी तरह से मन भी बिना भोजन के कमजोर हॉकर अपने मालिक का गुलाम बनाने को पूरा पूरा राजी हो जाता है और जैसा की ज्ञानिजन कहते हैं जिन्होंने मन को जीत लिया उसने इस पूरे संसार को जीत लिया |
युवक अपने इसी शांत और प्रसन्न मन के साथ अपनी आटा चक्की चलाने के कार्य को निरंतर करता रहा, ना मन में कोई फल मिलने की आशा ना ही फल ना मिलने की निराशा |
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इसी तरह करते करते 12 वर्ष बीत गए | इस तरह से अपने मन को निशक्म कर्म में लगाकर मन की चंचलता को नियंत्रण में करना कर्म योग कहलाता है |
इसके बाद जैसे जैसे समय बीत रहा था वैसे वैसे गुरु जी की शारीरिक काया भी अब ढलने लगी थी उन्हें अब लगने लगा की वो समय आ चुका है जब आश्रम की बागडोर किसी और के उचित हाथों में दी जाए | जिससे यह आश्रम आगे भी इसी तरह चल सके |
गुरुजी ने एक योजना बनाई और घोषणा करवाई | अब से में हर सुबह उठूंगा और मेरे कमरे की बाहर की दीवार देखूंगा | जिसे भी लगता है की अब वो आत्मज्ञानी हो चुका है और मेरी जगह ले सकता है वो अपने आत्मज्ञान का अनुभव इस दीवार पर सिर्फ चारों पंक्तियों में लिख कर छोड़ दे| जिसका भी जवाब संतुष्टि पूर्ण होगा वो अधिकारी होगा मेरी जगह लेने का|
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इसके बाद मानो आश्रम में खलबली मच गई | सबके मन में कल्पनाओं और संभावनों के शिखर बनाने लगे |
रात्रि होते ही दीवार पर लिखने वालों की भीड़ जमा हो गई | आश्रम के ज्ञानी से लेकर अज्ञानी तक सभी ने अपना भाग्य आजमाने के लिए शास्त्रों में पढ़ी होई कोई ना कोई चार पकीतियां उठा कर दीवार पर लिख दी साथ में बड़ा सा नाम जिससे उनकी मेहनत का श्रेय किसी और को ना मिल जाए |
इसमें जो सबसे ज्ञानी था वो दूर से इन सबकी मूर्खता देख कर और अपने ज्ञान के अहंकार में हंसने लगा | क्योंकि वो जनता था गुरु जी पढ़ कर ही समझ जाएंगे की जो ये पक्तियां लिखी गई हैं वो किस शास्त्र के किस पन्ने से उठाई गई हैं | सबके लिखने के बाद अपने आप को ज्ञानी समझने वाला व्यक्ति उठा और शास्त्रों में ही पढ़ी बातों को अपने शब्दों में थोड़ा घुमा फिरा कर कुछ इस तरह से लिख दिया
“आदमी का मन एक दर्पण है
यह दर्पण कर्म की धूल से ढका है
जिसने यह धूल हटा दर्पण साफ कर दिया
उसके लिए आत्मज्ञान और मोक्ष उपलब्ध हो गया>
बात तो यह भी बहुत गहरी और उपयोगी थी परंतु स्वयं के अनुभव से नहीं शास्त्रों से निकली थी |
गुरु सदेव की तरह सुबह 4 बजे उठे और दीवार देखी, कुछ देर तक गुरुजी दीवार देखते रहे और फिर कहा कौन हैं ये मूर्ख लोग जिन्होंने मेरी दीवार खराब कर दी मैंने अनुभव लिखने की थी दीवार गंदी करने की नहीं अभी की अभी इसे साफ करो |
यह बोल गुरुजी फिर से कमरे में चले गए | गुरु जी के कड़वे बोल सुन कर आश्रम में सन्नाटा झा गया | अब अगली रात दीवार सूनी पड़ी थी किसी की हिम्मत भी नहीं थी की अब वो अपनी तरफ से कुछ कोशिश करे लेकिन साथ में यह भी डर था की खाली दीवार देख कर गुरु जी फिर नाराज हो जाएंगे और कहेंगे की क्या इस आश्रम में मेरी जगह लेने वाला कोई लायक शिष्य नहीं |
आपस में लोगो की यह सब फुसफुसाहट चल ही रही थी की तभी वहां से वो युवक निकाला जो कई वर्षों से रसोई में गेहूं पीसने का कार्य कर रहा था | उसने शिष्यों को परेशानी में देख और उनकी आपसी बातचीत सुन कर वो दीवार के पास गया और चार पंक्तियां आपनी तरफ से लिख दी वो भी बिना किसी नाम के |
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यह सब होता देख कई शिष्य हसने लगे जिसमें से अपने आप को सबसे ज्ञानी समझने वाले शिष्य ने कहा अरे मूर्ख यह क्या कर रहा है सुबह गुरुजी का क्रोध देखा भी था | और वैसे भी यह उनकी जगह लेने की बात है कोई हलवाई की नहीं | यह सब सुन सब जोर जोर हसने लगे | फिर बीच में से एक शिष्य बोला और तू तो हलवाई भी नही बन सकता तुझे चक्की चलाने के सिवा कुछ आता भी है | टहाके गूंज उठे… जिसके बाद सब सोने के लिए अपने अपने कक्ष में चले गए |
सुबह के 4 बजे थे सारे शिष्य दीवार के सामने तमाशा देखने के लिए खड़े हो गए | गुरुजी बाहर आए उन्होंने दीवार देखी और उन चार पंक्तियों को पढ़ा जो थी
“जब कोई मन ही तो धूल कैसे और कहां जमेगी
जब कोई मन ही नहीं तो फिर साफ किसे और कैसे करूं
जिसने यह जान लिया, समझो उसने सब जान लिया”
इन चार पंक्तियों को पढ़ते ही गुरुजी की आंखों में आनंद की बूंदें झलक गई गुरुजी ने अपने सहायक को बुलाया और कहा | पुत्र अब मेरा आश्रम छोड़ने के समय आ चुका है | आश्रम की ये जरूरी चाबियां लो और रसोई में जाकर मेरे उस प्रिय शिष्य को दे दो जो १२ वर्षों से तुम सबके भोजन के लिए गेहूं पीसता आया है | यह आश्रम की वह दूसरी रात्रि थी जब गुरुजी के शब्दों ने आश्रम में शांति की लहर उठा दी |
अगली सुबह सालों से चावल पीसता आ रहा युवक गुरुजी के स्थान पर बैठा था | आगे उन्हीं सब शिष्यों की भीड़ लगी थी जो एक रात पहले उस पर ठहाके लगा रहे थे | सभी ने प्रणाम कर कहा आज से आप हमारे गुरु और मार्गदर्शक हैं और हम आपके शिष्य | लेकिन कल जो हुआ वो हम समझ नहीं पाए, इसलिए हम सभी आपके शिष्य होने के नाते जानना चाहते हैं की सत्य क्या है |
युवक मुकराया और कहा, अच्छा पहले यह बताओ तुम जानना क्या चाहते हो, सत्य जानना चाहते हो या फिर सत्य के बारे में जानना चाहते हो |
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दोस्तों यह थी एक छोटी सी कहानी जो उस कर्मयोग को समझती है जिसके बारे में भगवान श्री कृष्ण श्री मद भगवद गीता में बात करते ही हैं | यह कहानी ओशो रजनीश जी की ही एक कहानी से प्रेरित है जो सिखाती है की किस तरह से एक इंसान अपना नियंत कर्म करते हुए, बिना यह सोचे की जो मैं यह कर रहा हूं, उसका मुझे कब और क्या फल मिलेगा, फल मिलेगा भी या नहीं मिलेगा, मेरे इस कर्म के बारे में और मेरे बारे में लोग क्या सोचते हैं और क्या आपस में बात करते हैं जब कोई व्यक्ति इस तरह से अपना नियत कर्म करता है | तो वह स्वत ही मोक्ष और ईश्वर प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है |
नियत कर्म से अर्थ है वह कर्म जो उसके लिए निर्धारित किया गया है, ऐसा कर्म जिसे करते हुए वह अपने आप को भी भूल जाए, ऐसा कर्म जिसके बारे में उसे लगता है की उसका जन्म इसी कर्म के लिए हुआ है |क्योंकि अपना नियत कर्म करते हुए ही आप अपने मन को एकाग्र रख और नियंत्रण में रख सकते हो |
ओशो (Osho) द्वारा सुनाई गई अद्भुत कहानी | कर्मयोग से ज्ञानयोग | Osho Story in Hindi
ऐसा कर्म दूसरों की नजरों में बहुत छोटा भी हो सकता है जैसा की इस कहानी में चक्की पीसने वाले का था या फिर ऐसा कर्म दूसरों की नजर में बहुत बड़ा भी हो सकता है जैसे अर्जुन के लिए युद्ध लड़ना |
इस तरह से हो सकता है की लोगो के लिए नजरों में कोई काम छोटा या बहुत बड़ा हो परंतु भगवान श्री कृष्ण भगवत गीता में कहते हैं जो भी व्यक्ति अपने नियत कर्मों को सही प्रकार से अर्थात बिना किसी आसक्ति के करता है तो वह मोक्ष अर्थात् मनुष्य के सर्वोत्तम लक्ष्य का अधिकारी है फिर चाहे वो एक रिक्शा चलाने साधारण सा एक आम व्यक्ति हो या फिर पूरे देश को चलाने वाला प्रधानमंत्री हो |