Sanyas Kaise Le? घर परिवार छोड़ कर संन्यास कैसे लें? प्रेमानन्द जी महाराज ने कथा के माध्यम से समझाई पूरी बात
Sanyas Kaise Le : प्रेमानन्द जी महाराज से एक भक्त ने प्रश्न किया, “महाराज, मेरे मन में संन्यास लेने की तीव्र इच्छा है। मैं सब कुछ छोड़कर वृंदावन में जाकर भगवान की सेवा करना चाहता हूँ, पर मेरे मन में यह भी प्रश्न है कि मेरे परिवार और बच्चों का क्या होगा।” इस पर महाराज ने बड़ी सहजता और गहराई से उत्तर दिया (Sanyas Kaise Le), जिसमें उन्होंने कर्तव्य और संन्यास के बीच संतुलन बनाने की महत्ता समझाई।
परिवार या संन्यास
महाराज ने भक्त से कहा, “जब आप संन्यास लेने की इच्छा रखते हैं, तो यह सोचें कि आपके बच्चे और परिवार भी आपकी जिम्मेदारी हैं। जैसे आपके माता-पिता ने आपके पालन-पोषण और शिक्षा का भार उठाया था, वैसे ही यह आपका कर्तव्य है कि आप अपने बच्चों के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करें। अगर आपने अपने परिवार को बिना किसी व्यवस्था के छोड़ दिया, तो उनके जीवन में अस्थिरता आएगी, और आपकी तपस्या भी सफल नहीं होगी।”
महाराज ने आगे बताया कि जब व्यक्ति गृहस्थ जीवन का चुनाव करता है और परिवार की जिम्मेदारी लेता है, तब उसका सबसे बड़ा धर्म यह होता है कि वह अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाए। इसके बिना संन्यास (Sanyas Kaise Le) एक अधूरी साधना के समान है।
ऋषि कश्यप की कथा
महाराज ने एक कथा का उदाहरण दिया जो महाभारत में उल्लेखित है। उन्होंने बताया कि एक बार एक ऋषि, जिनका नाम कश्यप था, अपने वृद्ध माता-पिता को छोड़कर तपस्या करने के लिए चले गए। उनके माता-पिता वृद्ध थे और आँखों से देख नहीं सकते थे। फिर भी उन्होंने अपनी तपस्या की सिद्धि के लिए उन्हें अकेला छोड़ दिया।
एक दिन तपस्या करते समय, उनके पास एक चिड़िया आकर बैठी और उसने उन पर बीट कर दी। क्रोध में आकर उन्होंने उस चिड़िया को अपनी तपस्या से जलाकर भस्म कर दिया। इससे उन्हें लगा कि उनकी तपस्या सिद्ध हो गई है। बाद में, वह एक घर में भिक्षा मांगने गए।
Sanyas Kaise Le?
जब वह घर में भिक्षा मांगने पहुंचे, तो दरवाजे पर खड़ी स्त्री ने उन्हें कुछ समय के लिए इंतजार करने को कहा। वह पहले अपने पति की सेवा में लगी हुई थी, क्योंकि उनके लिए पति का सम्मान और सेवा सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य था। ऋषि कश्यप को यह देखकर क्रोध आया और उन्होंने कहा, “तुमने इतनी देर क्यों लगाई? क्या तुम्हें पता नहीं कि एक तपस्वी का अपमान करना अधर्म है?” उस स्त्री ने बहुत धैर्यपूर्वक जवाब दिया, “महात्मा, मेरे लिए मेरा पहला धर्म मेरे पति की सेवा करना है। इसके बाद ही किसी अन्य कर्तव्य का पालन कर सकती हूँ।”
जब कश्यप ने यह सुना तो उनका क्रोध और बढ़ गया। परंतु इस बार ऋषि कश्यप के क्रोध का स्त्री पर कुछ प्रभाव नहीं हुआ। तब वह स्त्री उनसे बोली, “महात्मा, आप मुझे वह बेजूबान और लाचार पकची न समझें,आपने मुझ पर अपना तपस्या का प्रभाव दिखाने की सोची, परंतु मैं कोई साधारण महिला नहीं हूँ। मैं भी एक योगी, त्रिकालज्ञ हूँ, अर्थात मुझे भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान है।”
Sanyas Kaise Le?
इस बात को सुनकर ऋषि कश्यप और भी आश्चर्यचकित हुए और उन्हें लगा कि उनके तप का अभी पूर्ण लाभ नहीं मिला। तब उस स्त्री ने उन्हें कहा, “यदि आप वास्तविक ज्ञान पाना चाहते हैं, तो सदन कसाई के पास जाएँ। वह आपको वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति कराएंगे।”
तपस्वी कश्यप ने उनकी बात मान ली और एक कसाई के पास गए, जो मांस काटकर बेचता था। उनके मन में यह विचार आया कि वह एक तपस्वी होकर एक कसाई से ज्ञान कैसे ले सकते हैं। लेकिन जब वह कसाई के पास पहुंचे, तो सदन कसाई ने उनसे कहा, “आप उस पतिव्रता स्त्री के द्वारा भेजे गए हैं, मैं कोशिश करूंगा आपकी समस्या का समाधान करने का।
इस पर ऋषि सोचने लगे की अब यह बात इसे कैसे पता लगी, ऋषि ने पूछा तुम्हें यह सब ज्ञान और सिद्धि कैसे प्राप्त होई?
सदन कसाई ने उत्तर दिया, “यह ज्ञान मुझे माता-पिता की सेवा से प्राप्त हुआ है। मैं मांस काटकर बेचता हूँ क्योंकि यह मेरे परिवार की परंपरा है, परंतु मैंने कभी मांस का सेवन नहीं किया। मेरा धर्म है कि मैं अपने माता-पिता का सम्मान करूँ और उनकी निस्वार्थ सेवा करूँ। यही कारण है कि मुझे त्रिकाल का ज्ञान प्राप्त हुआ है। मैंने निस्वार्थ और निरासक्त भाव से अपने नियत कर्मों और कर्तव्यों को निभाया, यही कर्म योग मेरी सिद्धि का मूल है।”
Sanyas Kaise Le?
उन्होंने कश्यप को यह भी बताया कि तपस्या और ज्ञान का असली मार्ग कर्तव्य-पालन से होकर ही जाता है। अगर उन्होंने अपने माता-पिता की सेवा छोड़ी होती, तो उन्हें यह सिद्धि कभी प्राप्त नहीं होती।
महाराज ने इस कथा से उस भक्त को यह सिखाने का प्रयास किया कि संन्यास का मार्ग छोड़कर अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारियाँ निभाना एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक कर्तव्य है।
उन्होंने कहा, “आपके मन में वृंदावन धाम में जाकर बसने की तीव्र इच्छा है, जो बहुत ही शुभ विचार है, लेकिन इससे पहले अपने बच्चों की शिक्षा, विवाह और उनकी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करें। एक बार जब आप अपने परिवार की हर जिम्मेदारी को पूर्ण कर लेंगे और परिवार के सदस्य भी आपके संन्यास को स्वीकार करेंगे, तभी आप संन्यास का मार्ग सफलतापूर्वक अपना सकते हैं।”
निष्कर्ष
प्रेमानन्द जी महाराज ने समझाया कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए संन्यास (Sanyas Kaise Le) की आकांक्षा रखने में कोई दोष नहीं है, परंतु संन्यास का सही मार्ग तभी प्राप्त होता है जब व्यक्ति अपने परिवार और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को भली-भांति पूरा कर ले। महाराज का यह संदेश उन सभी के लिए है जो संन्यास या वैराग्य की ओर अग्रसर होना चाहते हैं। संन्यास का वास्तविक स्वरूप यही है कि हम अपने दायित्वों को निभाकर एक सच्चे भक्त के रूप में भगवान की भक्ति और सेवा करें।