Pitru Paksha : पितृपक्ष और श्राद्ध की ऐसे होई शुरुआत | महाभारत और रामायण में भी मिलता है वर्णन
Pitru Paksha : सनातन धर्म में पूर्वजों का सम्मान और सेवा करना अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। इस धर्म के अनुसार, माता-पिता और पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है, जो पितृपक्ष में विशेष महत्त्व रखता है। पितृपक्ष (Pitru Paksha) की परंपरा के पीछे महाभारत और पुराणों में कई गूढ़ रहस्य छिपे हैं। आइए जानते हैं कैसे हुई पितृपक्ष (Pitru Paksha) की शुरुआत और क्या है इसका धार्मिक और सामाजिक महत्त्व।
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Toggleपितृपक्ष का आरंभ और महत्त्व
पितृपक्ष (Pitru Paksha) का समय भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर अश्विन अमावस्या तक का होता है। इसे पितरों की तृप्ति और उद्धार का समय माना जाता है। इस समय में श्राद्ध कर्म करने से पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है और उनके आशीर्वाद से घर-परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को बताया था कि श्राद्ध से धन, यश और संतान प्राप्ति के मार्ग प्रशस्त होते हैं।
श्राद्ध का पहला प्रारंभ: महर्षि निमि की कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, सबसे पहले महर्षि निमि ने श्राद्ध करने की परंपरा शुरू की थी। महर्षि निमि ने अपने पुत्र श्रीमान की मृत्यु के बाद उनके आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने सात ब्राह्मणों को भोजन करवाया और अपने पुत्र के नाम पर पिंडदान किया। लेकिन इसके बाद महर्षि निमि को आत्मग्लानि हुई क्योंकि वेदों में श्राद्ध पुत्र द्वारा करने का निर्देश दिया गया है। महर्षि अत्रि ने निमि को बताया कि श्राद्ध का नियम स्वयं ब्रह्मा जी द्वारा बनाया गया है, और इस प्रकार पिता द्वारा श्राद्ध करने का भी महत्त्व है। इस घटना के बाद श्राद्ध की परंपरा व्यापक रूप से स्थापित हुई।
श्राद्ध का पौराणिक आधार
गरुड़ पुराण में श्राद्ध का विशेष महत्त्व बताया गया है। भगवान विष्णु ने कहा है कि जिन व्यक्तियों के संतान नहीं होती, वे पितरों के उद्धार के लिए शटचंडी यज्ञ करें और भगवान शिव की उपासना करें। पुत्र की महत्ता इसीलिए मानी गई है क्योंकि वह पितरों को पुम नामक नरक से मुक्त करता है। श्राद्ध के माध्यम से पूर्वजों की आत्मा को सद्गति मिलती है और उनकी कृपा से परिवार में खुशहाली आती है।
श्राद्ध में अग्निदेव और देवताओं का स्थान
श्राद्ध में सबसे पहला अन्न अग्निदेव को अर्पित किया जाता है। महाभारत के अनुसार, एक बार देवता और पितर भोजन की अधिकता से परेशान हो गए थे और उन्होंने ब्रह्मा जी से इसकी शिकायत की। अग्निदेव ने इसका समाधान सुझाते हुए कहा कि वे श्राद्ध का पहला भाग ग्रहण करेंगे। तभी से श्राद्ध का पहला अंश अग्निदेव को चढ़ाया जाता है।
पितृपक्ष (Pitru Paksha) के विभिन्न दिनों का महत्त्व
महाभारत में भीष्म पितामह ने पितृपक्ष (Pitru Paksha) के हर दिन के महत्त्व को विस्तार से बताया है:
1.प्रतिपदा (पहला दिन): इस दिन श्राद्ध करने से व्यक्ति को सुंदर पत्नी मिलती है।
2.द्वितीया (दूसरा दिन): पुत्री की प्राप्ति होती है।
3.तृतीया (तीसरा दिन): घोड़े की प्राप्ति होती है।
4.चतुर्थी (चौथा दिन): छोटे पशुओं की प्राप्ति होती है।
5.पंचमी (पाँचवा दिन): पुत्र की प्राप्ति होती है।
6.षष्ठी (छठा दिन): व्यक्ति की सुंदरता बढ़ती है।
7.सप्तमी (सातवां दिन): खेती में उन्नति होती है।
8.अष्टमी (आठवां दिन): व्यापार में लाभ होता है।
9.नवमी (नौवां दिन): घोड़ों और खच्चरों के स्वास्थ्य में सुधार होता है।
10.दशमी (दसवां दिन): घर में पाली गई गायों को सुख मिलता है।
11.एकादशी (ग्यारहवां दिन): बर्तन और कपड़ों का लाभ होता है।
12.द्वादशी (बारहवां दिन): सोने, चांदी और धन की प्राप्ति होती है।
13.त्रयोदशी (तेरहवां दिन): समाज में सम्मान मिलता है।
14.चतुर्दशी (चौदहवां दिन): इस दिन श्राद्ध नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे अकाल मृत्यु का संकट बनता है।
15.अमावस्या (अंतिम दिन): इस दिन श्राद्ध करने से सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है।
कौए का श्राद्ध से संबंध
श्राद्ध में कौए को भोजन खिलाने की परंपरा का भी पौराणिक आधार है। आनंद रामायण के अनुसार, एक बार इंद्र का पुत्र जयंत कौवे का रूप धारण कर माता सीता को परेशान कर रहा था। श्री राम ने क्रोध में आकर उसे एक आँख से अंधा कर दिया। बाद में श्री राम ने उसे वरदान दिया कि श्राद्ध का भोजन कौए के बिना अधूरा माना जाएगा। तभी से कौए को श्राद्ध में भोजन देना अत्यंत आवश्यक माना गया है।
निष्कर्ष
पितृपक्ष (Pitru Paksha) और श्राद्ध की परंपरा भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह न केवल पूर्वजों के प्रति सम्मान और श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि परिवार की सुख-समृद्धि के लिए भी आवश्यक माना जाता है। श्राद्ध के माध्यम से हम अपने पूर्वजों के आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, जिससे जीवन में शांति और समृद्धि आती है।