ना तस्य प्रतिमा अस्ति का सही अर्थ | मूर्ति पूजा करना सही या गलत? Idol Worship in Hinduism, Right or Wrong?
Idol Worship in Hinduism, Right or Wrong : आज हम एक अत्यंत महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक विषय पर चर्चा करने जा रहे हैं—ना तस्य प्रतिमा अस्ति का सही अर्थ क्या है और मूर्ति पूजा सही है या गलत?
सदियों से यह प्रश्न धर्म और अध्यात्म की दुनिया में गूंजता रहा है कि सृष्टि के कर्ता परमसत्य साकार हैं या निराकार, निर्गुण हैं या सगुण। “ना तस्य प्रतिमा अस्ति” का अर्थ अक्सर यह लिया जाता है कि ईश्वर का कोई रूप नहीं है, लेकिन इसका सही अर्थ समझना जरूरी है। आइए, हम इसे गहराई से समझें।
ना तस्य प्रतिमा अस्ति का अर्थ
शास्त्रों में “ना तस्य प्रतिमा अस्ति” का शाब्दिक अर्थ यह है कि ईश्वर की कोई भौतिक प्रतिमा अर्थात उसे भौतिक रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता। इसका तात्पर्य यह है कि ईश्वर का रूप इस संसार के सामान्य रूपों जैसा नहीं है। हमारे शरीर या अन्य भौतिक वस्तुएं समय के साथ नष्ट हो जाती हैं, उनमें विकार आते हैं, परंतु परम सत्य का स्वरूप सदा अचल और अपरिवर्तनीय है।
Idol Worship in Hinduism, Right or Wrong?
भौतिक और आध्यात्मिक रूप का अंतर
हमारे शरीर भौतिक हैं और माया के तीन गुणों सत, रज और तम से बने हैं। ये शरीर समय के साथ बदलते हैं, बूढ़े होते हैं और नष्ट हो जाते हैं। लेकिन परम सत्य का स्वरूप सच्चिदानंद है, जो सत (सनातन), चित (ज्ञान) और आनंद (परमानंद) का प्रतीक है।
उदाहरण के लिए, श्री ब्रह्म संहिता में कहा गया है:
“ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानंद विग्रहः”
अर्थात् ईश्वर निराकार नहीं हैं, उनका एक दिव्य स्वरूप है जो सच्चिदानंद से बना हुआ है सनातन, ज्ञानमय और आनंदमय।
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मूर्ति पूजा की परंपरा और वैधता
अर्जुन ने भगवद गीता के 12वें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण से पूछा था कि उन्हें साकार रूप की पूजा करनी चाहिए या निराकार रूप की? इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट उत्तर दिया:
Bhagavad Gita: Chapter 12, Verse 5
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥
जिन लोगों का मन भगवान के अव्यक्त रूप (निराकार रूप) पर आसक्त होता है उनके लिए भगवान की अनुभूति का मार्ग अतिदुष्कर और कष्टों से भरा होता है। अव्यक्त रूप की उपासना देहधारी जीवों के लिए अत्यंत दुष्कर होती है।
इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य के लिए किसी निराकार शक्ति की पूजा करना मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण हो सकता है। साकार रूप की पूजा में हमें एक निश्चित स्वरूप मिलता है, जिसे हम अपने मन में धारण कर सकते हैं और जिससे हमारी भावना का जुड़ाव हो सकता है। भक्ति योग के लिए साकार रूप में ईश्वर की आराधना करना तुलनात्मक रूप से एक सरल मार्ग है, ईश्वर को पाने का, ईश्वर में लीन होने का।
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मूर्ति पूजा: सही या गलत?
मूर्ति पूजा (Idol Worship in Hinduism) को लेकर एक बड़ा विवाद है। कुछ लोग इसे अज्ञानता मानते हैं जबकि कुछ इसे सच्चे भक्तिभाव का प्रतीक मानते हैं। वास्तविकता यह है कि मूर्ति पूजा केवल प्रतीकात्मक है। ईश्वर की मूर्ति का रूप भक्त को उसकी भावना से जोड़ता है। मूर्ति की पूजा करना, वस्तुतः उस परम सत्य की पूजा करना है, जो उस मूर्ति के पीछे है। इसलिए प्रत्येक मूर्ति पूजक, मूर्ति की पूजा (Idol Worship in Hinduism) नहीं करता बल्कि मूर्ति के पीछे जो सच्चिदानंद ईश्वर है उसकी आराधना करता है। इसे आप नीचे दिए गए 2 उदाहरणों से समझ सकते हैं।
उदाहरण (1) : जब आप स्कूल में किसी महान व्यक्ति की तस्वीर देखते हैं, जैसे महात्मा गांधी की। जब लोग गांधीजी की तस्वीर को माला पहनाते हैं या उनके सामने झुकते हैं, तो वे तस्वीर के कागज या रंगों की पूजा नहीं कर रहे होते। वे उस महान आत्मा, उस विचार और उस योगदान को सम्मान दे रहे होते हैं, जो गांधीजी ने देश और समाज के लिए किया है। तस्वीर एक माध्यम है, जिससे उनकी याद और उनके कार्यों को सम्मानित किया जाता है।
Idol Worship in Hinduism, Right or Wrong?
उदाहरण (2) : जब लोग अपने देश के झंडे को सलामी देते हैं या उसके सामने खड़े होकर राष्ट्रगान गाते हैं, तो वे केवल कपड़े के टुकड़े को सम्मान नहीं दे रहे होते। झंडा उस देश, उसकी संप्रभुता, उसके नागरिकों और उसकी विरासत का प्रतीक होता है। झंडे के माध्यम से वे देश के प्रति अपनी निष्ठा और सम्मान प्रकट कर रहे होते हैं।
इसी प्रकार, मूर्ति पूजा (Idol Worship in Hinduism) में भी मूर्ति केवल एक प्रतीक होती है, जिसके माध्यम से भक्त अपने आराध्य देव या ईश्वर की सच्चिदानंद स्वरूप में पूजा करता है। मूर्ति के पीछे छिपी ईश्वर की शक्ति और उसकी उपस्थिति को ध्यान में रखते हुए भक्त अपना प्रेम और भक्ति अर्पित करता है।
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मूर्ति पूजा का उद्देश्य
Idol Worship in Hinduism, Right or Wrong : मूर्ति का उद्देश्य यह नहीं है कि उसे ईश्वर मान लिया जाए, बल्कि उसे एक माध्यम माना जाता है जिससे भक्त अपने भगवान की ओर ध्यान केंद्रित कर सके। मूर्ति हमें ईश्वर की दिव्य लीला और गुणों का स्मरण कराती है, जो अंततः हमें ईश्वर की अनुभूति और उनके प्रति प्रेम की ओर अग्रसर करती है।
जैसे हम किसी महान व्यक्तित्व की तस्वीर या प्रतिमा देखकर उनका सम्मान करते हैं, वैसे ही मूर्ति पूजा का भी उद्देश्य है ईश्वर के प्रति श्रद्धा और प्रेम व्यक्त करना।
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|| जय श्री कृष्णा ||