Bhagavad Gita 2.48 || अध्याय ०२ , श्लोक ४८ – भगवद गीता

Bhagavad Gita 2.47

Bhagavad Gita 2.48 || अध्याय ०२ , श्लोक ४८ – श्रीमद्भगवत गीता

Bhagavad Gita 2.47

अध्याय ०2, श्लोक 48

योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते || 2.48 ||

शब्दार्थ –  हे अर्जुन, आसक्ति को त्याग कर हमेशा योग में स्थित रहकर कार्य करो । चाहे सफलता हो या असफलता सभी में समभाव रहो, इसी समता को योग कहा जाता है।

Bhagavad Gita 2.48

 
तात्पर्य – भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, कार्य करते समय कभी भी आसक्ति भाव मन में मत रखो। बिना आसक्ति भाव के कार्य करने का अर्थ है कि, कार्य करते समय उससे किसी भी तरह के फल की आशा मत रखो | तुम सिर्फ और सिर्फ अपने कर्म के बारे में ही चिंतन करो। यह मत सोचो कि इसका तुम्हें क्या फल मिलने वाला है, क्या-क्या फल मिल सकता है, किस तरह का फल तुम्हें मिलना चाहिए एवं किस तरह का फल तुम चाहते हो। इन सभी विचारों को अपने मन से निकाल कर अपना पूर्ण ध्यान अपने कर्म पर लगाते हुए कार्य करना ही आसक्ति रहित कर्म है। तुम जहां भी कर्म से कोई फल की आशा रख बैठोगे, चाहे वह आशा थोड़ी ही क्यों न हो वही आशा तुम्हारे दुख का कारण बन जाएगी | इसलिए हे अर्जुन, हमेशा अपनी आसक्ति का त्याग करके योग में स्थित रहकर कार्य करो। योग में स्थित रहने का अर्थ है कि हमेशा समभाव की स्थिति में रहो।
चाहे तुम्हें अपने जीवन में अपने कर्मों के फल स्वरुप कितनी ही बड़ी सफलता क्यों न मिल जाए उसे खुद पर हावी ना होने दो | क्योंकि इस तरह की स्थिति तुम्हें अहंकार से ग्रस्त कर सकती है एवं भविष्य में तुम्हारे पतन का कारण भी बन सकती है |
इसलिए अपनी किसी भी सफलता का श्रेय स्वयं को ना देकर उसे मेरे द्वारा दिया गया प्रसाद समझो | क्योंकि तुम्हारे द्वारा किए गए किसी भी कर्म का फल का कारण तुम नहीं हो और ना ही कभी अपने आप को समझो |
इसके विपरीत तुम्हें जीवन में चाहे कितनी ही असफलताएं क्यों न मिल जाए कभी भी निराश या तनावग्रस्त ने हो।
क्योंकि जैसा कि मैं बता चुका हूं “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” अर्थात तुम्हारा अधिकार और नियंत्रण सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे कर्म पर है और उसके फल पर न तो तुम्हारा अधिकार है और न हीं नियंत्रण है। इसलिए तुम प्रत्येक परिस्थिति में समभाव अर्थात समान भाव से कार्य करो |
जीवन की हर परिस्थिति में अपने आप को समान भाव रखने की यही प्रवृत्ति योग कहलाती है। इसलिए मैं यह भी तुमसे कहता हूं  “योगस्थ: कुरु कर्माणि” अर्थात हमेशा योग में स्थित रहकर कार्य करो|
|| जय श्री कृष्णा ||

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